सोंलह संस्कार
गर्भाधान संस्कार
स्वस्थ सुसंस्कृत युवक एवं युवती जो आयु परिपुष्ट हों सुमन, सुचित्त होकर परिवार हेतु सन्तान प्राप्ति के उद्देश्य से इस संस्कार को करते हैं। वैदिक संस्कृति में गर्भाधान को श्रेष्ठ गुण, कर्म, स्वभाववाली आत्मा को बुलाने के लिए धार्मिक पवित्र यज्ञ माना गया है। जैसे अच्छे वृक्ष या खेती के लिए उत्तम भूमि एवं बीज की आवश्यकता होती है वैसे ही बालक के शरीर को यथावत बढ़ने तथा गर्भ के धारण पोषण हेतु आयुर्वेद के अनुसार पुरुष की न्यूनतम आयु 25 वर्ष तथा स्त्री की 16 वर्ष आवश्यक होती है। वैदिक मान्यतानुसार दम्पति अपनी इच्छानुसार बलवान्, रूपवान, विद्वान, गौरांग, वैराग्यवान् संस्कारोंवाली सन्तान को प्राप्त कर सकते हैं। इसके लिए ब्रह्मचर्य, उत्तम खान-पान व विहार, स्वाध्याय, सत्संग, दिनचर्या, चिन्तन आदि विषयों का पालन करना पड़ता है। जिसका विवरण आयुर्वेद विषयक ग्रन्थों में विस्तार से देखा जा सकता है।
यह संस्कार गर्भावस्था के दूसरे व तीसरे माह में किया जाता है। इसका उदेश्य गर्भस्थ शिशु को पौरुषयुक्त अर्थात् बलवान, हृष्ट-पुष्ट,निरोगी, तेजस्वी, एवं सुन्दरता के लिए किया जाता है। चरक संहिता के अनुसार उकडूं बैठने, ऊंचे-नीचे स्थानों में फिरने, कठिन आसन पर बैठने, वायु-मलमूत्रादि के वेग को रोकने, कठोर परिश्रम करने, गर्म तथा तेज वस्तुओं का सेवन करने एवं बहुत भूखा रहने से गर्भ सूख जाता है, मर जाता है या उसका स्राव हो जाता है। इसी प्रकार चोट लगने, गर्भ के किसी भांति दबने, गहरे गड्ढे कुंए पहाड़ के विकट स्थानों को देखने से गर्भपात हो सकता है। तथा सदैव सीधी उत्तान लेटी रहने से नाड़ी गर्भ के गले में लिपट सकती है जिससे गर्भ मर सकता है।
सीमन्त शब्द का अर्थ है मस्तिष्क और उन्नयन शब्द का अर्थ है विकास। पुंसवन संस्कार शारीरिक विकास के लिए होता है तो यह मानसिक विकास के लिए किया जाता है। इस संस्कार का समय गर्भावस्था के चतुर्थ माह, चौथे में न कर पाए तो छठे, इसमें भी नहीं कर पाए तो आठवें माह में कर सकते हैं। सुश्रुत के अनुसार पांचवे महिने में मन अधिक जागृत होता है, छठे में बुद्धि तो सातवें में अंग-प्रत्यंग अधिक व्यक्त होने लगते हैं। आठवें माह में ओज अधिक अस्थिर रहता है। इस संस्कार का उदेश्य है कि माता इस बात को अच्छी प्रकार समझे कि सन्तान के मानसिक विकास की जिम्मेवारी अब से उस पर आ पड़ी है। आठवे महिने तक गर्भस्थ शिशु के शरीर-मन-बुद्धि-हृदय ये चारों तैयार हो जाते हैं। इस समय गर्भिणी को दौहृद कहा जाता है। उसके दो हृदय काम करने लगते हैं। यही अवस्था गर्भिणी के लिए सब से खतरनाक अवस्था है। प्रायः आठवें माहोत्पन्न सन्तान जीती नहीं, इसलिए इस अवस्था में स्त्री को सन्तान के शरीर-मन-बुद्धि-हृदय इन सबको स्वस्थ, क्रियाशील बनाए रखने की तरफ विशेष ध्यान देना चाहिए।
शिशु के विश्व प्रवेश पर उसके ओजमय अभिनन्दन का यह संस्कार है। इसमें सन्तान की अबोध अवस्था में भी उस पर संस्कार डालने की चेष्टा की जाती है। माता से शारीरिक सम्बन्ध टूटने पर उसके मुख नाकादि को स्वच्छ करना ताकि वह श्वास ले सके तथा दूध पी सके। यह सफाई सधी हुई दाई से कराएँ। आयुर्वेद के अनुसार सैंधव नमक घी में मिलाकर देने से नाक और गला साफ हो जाते हैं। बच्चे की त्वचा को साफ करने के लिए साबुन या बेसन और दही को मिलाकर उबटन की तरह प्रयोग किया जाता है। स्नान के लिए गुनगुने पानी का प्रयोग होता है। चरक के अनुसार कान को साफ करके वे शब्द सुन सकें इसलिए कान के पास पत्थरों को बजाना चाहिए।
इस संस्कार का उदेश्य केवल शिशु को नाम भर देना नहीं है, अपितु उसे श्रेष्ठ से श्रेष्ठतर उच्च से उच्चतर मानव निर्माण करना है। पश्चिमी सभ्यता में निरर्थक नाम रखने का अन्धानुकरण भारत में भी बढ़ता जा रहा है। उनके लिए चरक का सन्देश है कि नाम साभिप्राय होनें चाहिएं। नाम केवल सम्बोधन के लिए ही न होकर माता-पिता द्वारा अपने सन्तान के सामने उसके जीवनलक्ष्य को रख देना होता है। सन्तान के जन्म के दिन से ग्यारहवें दिन में, या एक सौ एकवें दिन में, या दूसरे वर्ष के आरम्भ में जिस दिन जन्म हुआ हो यह संस्कार करना चाहिए। नाम ऐसा रक्खे कि श्रवण मात्र से मन में उदात्त भाव उत्पन्न करनेवाला हो। उच्चारण में वो कठिन नहीं अपितु सुलभ होना चाहिए। पाश्चात्य संस्कृति में चुम्बन लेने की प्रथा है और ऐसा करने से अनेक प्रकार के संक्रान्त रोग शिशु को हो सकते हैं। जबकि भारतीय संस्कृति में स्पर्ष या सूंघने का वर्णन आता है। षिषु को गोद में लेकर उसके नासिका द्वार को स्पर्श करने से इसका ध्यान अपने आप स्पर्शकर्ता की ओर खिंच जाता है।
निष्क्रमण का अर्थ है बाहर निकलना। घर की अपेक्षा अधिक शुद्ध वातावरण में शिशु के भ्रमण की योजना का नाम निष्क्रमण संस्कार है। बच्चे के शरीर तथा मन के विकास के लिए उसे घर के चारदीवारी से बाहर ताजी शुद्ध हवा एवं सूर्यप्रकाश का सेवन कराना इस संस्कार का उद्देश्य है। गृह्यसूत्रों के अनुसार जन्म के बाद तीसरे शुक्ल पक्ष की तृतीया अर्थात् चान्द्रमास की दृष्टि से जन्म के दो माह तीन दिन बाद अथवा जन्म के चौथे माह में यह संस्कार करे। इसमें शिशु को ब्रह्म द्वारा समाज में अनघ अर्थात् पाप रहित करने की भावना तथा वेद द्वारा ज्ञान पूर्ण करने की भावना अभिव्यक्त करते माता-पिता यज्ञ करें। पति-पत्नी प्रेमपूर्वक शिशु के शत तथा शताधिक वर्ष तक समृद्ध, स्वस्थ, सामाजिक, आध्यात्मिक जीने की भावनामय होकर शिशु को सूर्य का दर्शन कराए। इसी प्रकार रात्रि में चन्द्रमा का दर्षन उपरोक्त भावना सहित कराए। यह संस्कार शिशु को आकाष, चन्द्र, सूर्य, तारे, वनस्पति आदि से परिचित कराने के लिए है।
जीवन में पहले पहल बालक को अन्न खिलाना इस संस्कार का उद्देश्य है। पारस्कर गृह्यसूत्र के अनुसार छठे माह में अन्नप्राशन संस्कार होना चाहिए। कमजोर पाचन शिशु का सातवे माह जन्म दिवस पर कराए। इसमें ईश्वर प्रार्थना उपासना पश्चात शिशु के प्राण-अपानादि श्वसन व्यवस्था तथा पंचेन्द्रिय परिशुद्धि भावना का उच्चारण करता घृतमय भात पकाना तथा इसी भात से यज्ञ करने का विधान है। इस यजन में माता-पिता तथा यजमान विश्व देवी प्रारूप की अवधारणा के साथ शिशु में वाज स्थापना (षक्तिकरण-ऊर्जाकरण) की भावना अभिव्यक्त करे। इसके पश्चात पुनः पंच श्वसन व्यवस्था तथा इन्द्रिय व्यवस्था की शुद्धि भावना पूर्वक भात से हवन करे। फिर शिशु को घृत, मधु, दही, सुगन्धि (अति बारीक पिसी इलायची आदि) मय भात रुचि अनुकूल सहजतापूर्वक खिलाए। इस संस्कार में अन्न के प्रति पकाने की सौम्य महक तथा हवन के एन्झाइम ग्रहण से क्रमषः संस्कारित अन्नभक्षण का अनुकूलन है।
इसका अन्य नाम मुण्डन संस्कार भी है। रोगरहित उत्तम समृद्ध ब्रह्मगुणमय आयु तथा समृद्धि-भावना के कथन के साथ शिशु के प्रथम केशों के छेदन का विधान चूडाकर्म अर्थात् मुण्डन संस्कार है। यह जन्म से तीसरे वर्ष या एक वर्ष में करना चाहिए। बच्चे के दांत छः सात मास की आयु से निकलना प्रारम्भ होकर ढाई-तीन वर्ष तक की आयु तक निकलते रहते हैं। दांत निकलते समय सिर भारी हो जाता है, गर्म रहता है, सिर में दर्द होता है, मसूड़े सूझ जाते हैं, लार बहा करती है, दस्त लग जाते हैं, आंखे आ जाती हैं, बच्चा चिड़चिड़ा हो जाता है। दांतों का भारी प्रभाव सिर पर पड़ता है। इसलिए सिर को हल्का और ठंडा रखने के लिए सिर पर बालों का बोझ उतार ड़ालना ही इस संस्कार का उदेश्य है। बालों को उस्तरे से निकाल देने के निम्न कारण हैं- शिशु गर्भ में होता है तभी उसके बाल आ जाते हैं, उन मलिन बालों को निकाल देना, सिर की खुजली दाद आदि से रक्षा के लिए, सिर के भारी होने आदि से रक्षा के लिए तथा नए बाल आने में सहायक हों, इसलिए मुण्डन कराया जाता है।
कान में छेद कर देना कर्णवेध संस्कार है। गृह्यसूत्रों के अनुसार यह संस्कार तीसरे या पांचवे वर्ष में कराना योग्य है। आयुवेद के ग्रन्थ सुश्रुत के अनुसार कान के बींधने से अन्त्रवृद्धि (हर्निया) की निवृत्ति होती है। दाईं ओर के अन्त्रवृद्धि को रोकने के लिए दाएं कान को तथा बाईं ओर के अन्त्रवृद्धि को रोकने के लिए बाएं कान को छेदा जाता है। इस संस्कार में शरीर के संवेदनषील अंगों को अति स्पर्शन या वेधन (नुकीली चीज से दबाव) द्वारा जागृत करके थेलेमस तथा हाइपोथेलेमस ग्रन्थियों को स्वस्थ करते सारे शरीर के अंगों में वह परिपुष्टि भरी जाती है कि वे अंग भद्र ही भद्र ग्रहण हेतु सशक्त हों। बालिकाओं के लिए इसके अतिरिक्त नासिका का भी छेदन किया जाता है। सुश्रुत में लिखा है- ”रक्षाभूषणनिमित्तं बालस्य कर्णौ विध्येते“ अर्थात् बालक के कान दो उदेश्य से बींधे जाते हैं। बालक की रक्षा तथा उसके कानों में आभूषण डाल देना। आजकल यह काम सुनार या कोई भी व्यक्ति जो इस काम में निपुण हो कर देता है। परन्तु सुश्रुत में लिखा है ”भिषक् वामहस्तेनाकृष्य कर्णं दैवकृते छिद्रे आदित्यकरावभास्विते शनैः शनैः ऋजु विद्धयेत्“- अर्थात् वैद्य अपने बाएं हाथ से कान को खींचकर देखे, जहां सूर्य की किरणें चमकें वहां-वहां दैवकृत छिद्र में धीरे-धीरे सीधे बींधे। इससे यह प्रतीत होता है कि कान को बींधने का काम ऐसे-वैसे का न होकर चिकित्सक का है। क्योंकि कान में किस जगह छिद्र किया जाय यह चिकित्सक ही जान सकता है।
इस संस्कार में यज्ञोपवीत या जनेऊ धारण कराया जाता है। इसके धारण कराने का तात्पर्य यह है कि बालक अब पढ़ने के लायक हो गया है, और उसे आचार्य के पास विद्याध्ययन के लिए व्रत सूत्र में बांधना है। यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं जो तीन ऋणों के सूचक हैं। ब्रह्मचर्य को धारण कर वेदविद्या के अध्ययन से ”ऋषिऋण“ चुकाना है। धर्मपूर्वक गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर सन्तानोत्पत्ति से ”पितृऋण“ और गृहस्थ का त्याग कर देष सेवा के लिए अपने को तैयार करके ”देवऋण“ चुकाना होता है। इन ऋणों को उतारने के लिए ही क्रमषः ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ आश्रम की योजना वैदिक संस्कृति में की गई है। बालक-बालिका के पढ़ने योग्य अर्थात् पांचवे से सातवे वर्ष तक यह संस्कार करना उचित है। इस संस्कार के पूर्व बालक को आर्थिक सुविधानुसार तीन दिवस तक दुग्धाहार, श्रीखंडाहार, दलियाहार, खिचड़ी-आहार इन में से किसी एक का चयन कर उसी का सेवन कराना चाहिए।
यह उपनयन के साथ-साथ ही किया जाता है। इस संस्कार को करके वेदाध्ययन प्रारम्भ किया जाता था। इसमें बालक में सुश्रव, सुश्रवा, सौश्रवस होने तथा इसके बाद यज्ञ की विधि फिर वेद की निधि पाने की भावना होती है। यह संस्कार महान् अस्तित्व पहचान संस्कार है। इसे संस्कारों का संस्कार कह सकते हैं। इस संस्कार द्वारा बालक में आयु, मेधा, वर्चस्, तेज, यश, समिध्यस्, ब्रह्मवर्चस्, अस्तित्व, संसाधन, त्व आदि भाव जागृत किए जाते हैं। इस संस्कार में मत कर निर्देश, दोष मार्जनम्, कर निर्देश हीनांगपूर्ति तथा भाव जागृति अतिषयाधान रूप में है। ऊपर दिए अतिशयाधान के साथ-साथ अग्नि के दिव्यदा स्वरूपों से अनेक दिव्यों की आकांक्षा करते हैं। तथा हर बालक वाक्, प्राण, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, की इन्द्रियों की परिपूर्णता के साथ-साथ इनमें यष, बल भाव आभर होने के मन्त्र ओ3म् वाक् वाक् रूप में कहता है। फिर बालक आचार्य से सम्पूर्ण चेतना अस्तित्व एवं सावित्री तीन महाव्याहृति के निकटतम कर देने की आकांक्षा करता है। आचार्य बालक से विषिष्ट शाखा विधि से गायत्री मन्त्र का तीन पदों, तीन महाव्याहृतियों या सावित्री क्रम में निम्नलिखित अनुसार पाठ कराता है। प्रथम बार- ओ3म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्। द्वितीय बार- ओ3म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि। तृतीय बार- ओ3म् भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम् भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।।
परिणीत युवक, परिणीता युवती, नव्य-नव्य युवक, नव्या-नव्या युवती जो ब्रह्ममय, वेदमय उदात्त विचारों के आधुनिकतम सन्दर्भों के आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक विज्ञानों में निष्णांत हों उनके लिए यह संस्कार किया जाता है। 24 वर्ष के वसु ब्रह्मचारी अथवा 36 वर्ष के रुद्र ब्रह्मचारी या 48 वर्ष के आदित्य ब्रह्मचारी जब सांगोपांग वेदविद्या, उत्तम शिक्षा, और पदार्थ विज्ञान को पूर्ण रीति से प्राप्त होके विद्याध्ययन समाप्त करके घर लौटता था तब आचार्य उसे उपदेश देता था कि तू सत्य को कभी न छोड़ना, धर्म का आचरण सदैव करते रहना, स्वाध्याय में प्रमाद कभी न करना, इत्यादि। आचार्य का आश्रम द्वितीय गर्भ है जिसमें विद्या-अर्थी का विद्या पठन होता है। समावर्तन संस्कार द्वारा विद्यार्थी संसार में सहजतः सरलतापूर्वक दूसरा जन्म लेता है। मानव का द्विज नाम इसी सन्दर्भ में है। ब्रह्मचारी विद्यार्थी भिक्षाटन-अतिथि व्यवस्था द्वारा समाज के परिवारों से परिचित रहता है। समावर्तन संस्कार करानेवाले स्नातक तीन प्रकार के होते हैं- 1) विद्या-स्नातक:- विद्या समाप्त कर बिना विवाह आजीविका कार्य। 2) व्रत-स्नातक:- विवाह करके भी विद्याध्ययन जारी रखनेवाला। 3) विद्याव्रत स्नातक:- विवाहबद्ध आजीविकामय जीवन जीनेवाला अर्थात् विद्या अध्ययन एवं ब्रह्मचर्य व्रत की भी समाप्ति।
विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीरादि का परिमाण यथायोग्य हो जिन युवक युवती का उनका आपस में सम्भाषण कर माता-पिता अनुमति से गृहस्थ धर्म प्रवेश विवाह है। अर्थात् पूर्ण ब्रह्मचर्यव्रत विद्या बल को प्राप्त करके, सब प्रकार के शुभगुण-कर्म-स्वभावों में तुल्य, परस्पर प्रीतियुक्त हो, विधि अनुसार सन्तानोत्पत्ति और अपने वर्णाश्रमानुकूल उत्तम कर्म करने के लिए युवक युवती का स्वचयनाधारित परिवार से जो सम्बन्ध होता है उसे विवाह कहते हैं। गृहस्थाश्रम धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष पथ ले जाता अश्व है। यह अविराम गति है, प्रशिक्षित गति है, अवीनामी विस्तरणशील है, कालवत सर्पणशील है, ज्योति है, ब्रह्मचर्य-वानप्रस्थ-संन्यास इन तीनों आश्रमों की आधारवृषा है, उमंग उत्साह से पूर्ण है, वेद प्रचार केन्द्र है, शिशु के आह्लाद उछाह का केन्द्र है, परिवार सदस्यों द्वारा शुभ-गमन है, रमणीयाश्रम है, श्रेष्ठ निवास, श्रेष्ठ समर्पण, स्वाहा है यह गृहस्थाश्रम।
गृहस्थाश्रम में अक्षमता के स्तर पर अस्तित्व पहचान संकट पैदा होने पर प्रदत्तीकरण (डेलीगेषन) तथा यम, नियम, वियम, संयम (यम-लोक) योगाभ्यास साधना द्वारा आत्मिक क्षमतावृद्धि करना वानप्रस्थ आश्रम है। विवाह से सुसन्तानोत्पत्ति करके, पूर्ण ब्रह्मचर्य से, पुत्र के विवाह उपरान्त पुत्र की भी एक सन्तान हो जाए, तब व्यक्ति को वानप्रस्थ अर्थात् वन में जाकर, तप और स्वाध्याय का जीवन व्यतीत करने के लिए यह संस्कार किया जाता है। गृहस्थ लोग जब अपने देह का चमडा ढीला और ष्वेत केष होते हुए देखे और पुत्र का भी पुत्र हो जाए तो वन का आश्रय लेवे। वानप्रस्थ करने का समय 50 वर्ष के उपरान्त का है। जब व्यक्ति नाना-नानी या दादा-दादी हो जाए तब अपनी स्त्री, पुत्र, भाई, बन्धु, पुत्रवधु आदि को सब गृहाश्रम की षिक्षा करकेवन की ओर यात्रा की तैयारी करे। यदि स्त्री चले तो साथ ले जावे। नहीं तो ज्येष्ठ पुत्र को सौंप जाए। और उसे कहे कि इसकी यथावत सेवा करना। और अपनी पत्नी को शिक्षा कर जावे कि तू सदा पुत्रादि को धर्म मार्ग में चलाने के लिए और अधर्म से हटाने के लिए षिक्षा करती रहना।
संन्यास = सं + न्यास। अर्थात् अब तक लगाव का बोझ जो उसके कन्धों पर है, उसे उठाकर अलग धर देना। मोहादि आवरण पक्षपात छोड़ के विरक्त होकर सब पृथ्वी में परोपकारार्थ विचरना।संन्यास ग्रहण के प्रथम प्रकार को क्रम संन्यास कहते हैं। जिसमें क्रमश: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ होके संन्यास लिया जाता है। द्वितीय प्रकार में गृहस्थ या वानप्रस्थ में जिस दिन वैराग्य प्राप्त होवे उसी दिन, चाहे आश्रम काल पूरा भी न हुआ हो, दृढ़ वैराग्य और यथावत ज्ञान प्राप्त करके संन्यास लेवे। तृतीय प्रकार में ब्रह्मचर्य से सीधा संन्यास लिया जाता है। जिसमें पूर्ण अखण्डित ब्रह्मचर्य, सच्चा वैराग्य और पूर्ण ज्ञान-विज्ञान को प्राप्त कर विषयासक्ति से उपराम होकर, पक्षपात रहित होकर सबके उपकार करने की इच्छा का होना आवष्यक समझा गया है। संन्यास ग्रहण की पात्रता में एषणात्रय- लोकैषणा, वित्तैषणा, पुत्रैषणा का सवर्था त्याग आवश्यक माना जाता है।
इसका नाम नरमेध, पुरुषमेध या पुरुषयाग भी है। यह मृत्यु के पीछे उसके शरीर पर किया जाता है। संसार में प्रचलित अन्य पद्धतियों में षवदाह की वैदिक पद्धति ही सर्वश्रेष्ठ पद्धति है।विश्वभर के लोग मरने पर मृतक शरीर को पृथ्वी, जल, अग्नि व वायु इन तत्वों में से किसी एक की भेंट कर देते हैं। जो लोग गाड़ते हैं वे पृथ्वी को, जो जल में प्रवाहित करते हैं वे जल को, जो षव को खुला छोड़ देते हैं वे वायु को प्रदूषित करते हैं।वैदिक पद्धति से शवदाह के कई लाभ हैं- मृत शरीर को जलाने से भूमि बहुत कम खर्च होती है। कब्रों से स्थान-स्थान पर बहुत सी भूमि घिर जाती है। शवदाह में पर्याप्त घृत-सामग्री के प्रयोग के कारण वायु प्रदूषण का भी निवारण हो जाता है। जबकि गाड़ने से वायु एवं भूमि प्रदूषित ही होती है। कभी कभी कुछ पषु मृत देह को उखाड़कर खा जाते हैं। और रोगी शरीर को खाने से वे स्वयं रोगी बनकर मनुष्यों में भी रोग फैलाते हैं। कभी कुछ कफनचोर कब्र को खोद कर कफन उतार लेते हैं। इस से मृतक के सम्बन्धियों के मनोभावों को ठेस पहुंचती है। संसार में लाखों बीघा जमीन कब्रस्तानों में व्यर्थ जा रही है। मृर्दों को जलाना शुरु करने से यह कृषि या मकान बनाने में काम आ सकती है। कब्रों को कुछ स्वार्थी एवं पाखंडी लोग दरगाह आदि बनाकर भेंट-पूजा, चढावा आदि के माध्यम से आय का साधन बनाकर अन्धश्रद्धालु भोली-भाली जनता को लूटते हैं। अनेक पतित लोग तन्त्र-मन्त्र के नाम पर मुर्दों को उखाड़कर उनके साथ कुकर्म करते देखे गए हैं।मृतक शव के पंचमहाभूतों को जल्दी से जल्दी सूक्ष्म करके अपने मूल रूप में पहुंचा देना ही वैदिक अन्त्येष्टि संस्कार है। अग्नि द्वारा दाह कर्म ही एक ऐसा साधन है जिससे मृतदेह के सभी तत्व षीघ्र ही अपने मूल रूप् में पहुंच जाते हैं।